What is Equality & The Concept Of Equality and Types of Equality in Hindi - समानता की अवधारणा - Abhishek Online Study By Abhishek Gupta
The Concept Of Equality - समानता की अवधारणा
स्वतंत्रता की तरह ही 'समानता' का सिद्धांत भी हमेशा लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ हैं। इस संबंध में जॉन लॉक ने कहा है कि स्वतंत्रता की तरह समानता भी व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार हैं। अमेरिकी स्वातन्त्र-घोषणा-पत्र में भी कहा गया है कि "सभी मनुष्य जन्म से ही स्वतंत्र व समान हैं।" समानता आज भारतीय संविधान में एक महत्वपूर्ण मूल्य के रूप में दर्ज हैं। समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दुनिया में कई निर्णायक आंदोलन व क्रांतियांँ भी हुई। फ्रांस की राज्य-क्रांति 1789 में हुई थी। जिसका आधार समानता, स्वतंत्रता और भ्रांतृत्व ही था। आगे हेरोल्ड जे॰ लाॅस्की ने समानता के सम्बन्ध में कहा कि "जब तक मानव योग्यता और आवश्यकता में असमान है, व्यवहार की समानता असंभव है।" ("There can be no ultimate identity of treatment so long as men are different in want and capacity and need.") अप्पादोराय ने कहा कि "यह स्वीकारना कि सभी मनुष्य समान है उतना ही गलत है जितना कि यह कहना कि भूमंडल समतल हैं।" ("The statement, then, that men are equal is erroneous as that the surface of the earth is level.") तब सवाल है कि 'समानता' है क्या? इस संबंध में प्रो॰ लाॅस्की ने बताया कि "समानता विशेषअधिकारों का अभाव हैं। सभी के लिए समुचित अवसर का मार्ग प्रशस्त करना है।"
आज के परिप्रेक्ष्य में जिस समानता कि बात करते हैं, वह असमानता के उल्ट हैं। आजकल असमानता को समाप्त करने की बात हो रही हैं। इसके लिए कई प्रकार के आंदोलन व सभाएंँ हो रही हैं। जिन असमानताओं को दूर करने की बात हो रही हैं। वह असमानता दो प्रकार की हैं –
1. पहली प्रकार की असमानता वह है जिसका मूल व्यक्तियों में प्राकृतिक अंतर हैैं। प्रकृति के द्वारा विभिन्न व्यक्तियों में बुद्धि, बल और प्रतिभा के आधार पर अंतर किया जाता है और इस अंतर के कारण जो असमानता पैदा होती है, उसे प्राकृतिक असमानता कहा जाता हैं। अर्थात् प्राकृतिक असमानता का कोई निराकरण नहीं है और नहीं करना उचित हैं। यह असंभव हैं।
2. दूसरे प्रकार की असमानता वह है जिसका मूल समाज द्वारा पैदा की गई असमानताएंँ हैं। समाज द्वारा पैदा की गई असमानताओं में कई बार देखा जाता है कि बुद्धि, बल और प्रतिभा के विद्यमान रहते हुए भी गरीब व्यक्तियों के बच्चे अपने व्यक्तित्व का वैसा विकास नहीं कर पाते हैं, जैसा कि अमीर के बच्चे कर पाते हैं। इस तरह की समाज द्वारा बनायी गयी असमानता की परंपरा को समाज निर्मित असमानता या कृत्रिम असमानता कहा जाता हैं। ऐसी असमानता उत्पन्न होने का मूल कारण है कि सभी को समान अवसर प्राप्त न होना है। इस असमानता या विषमता को समाप्त करने के लिए राज्य के सभी व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास के लिए समान अवसर दिया जाना चाहिए। ताकि किसी भी व्यक्ति को कहने का कोई अवसर न मिले कि यदि उसे भी समान अवसर या सुविधाएंँ प्राप्त होती, तो वह भी अपने जीवन का विकास कर सकता था।
अर्थात समानता का मतलब ऐसी परिस्थितियों के अस्तित्व से होता है जिसके कारण व्यक्तियों को व्यक्तित्व के विकास के लिए समान अवसर प्राप्त हो सकें और असमानता का अंत हो सकें। जिसके मूल में सामाजिक वैमनस्य हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में हेरोल्ड जे॰ लाॅस्की ने कहा है कि "समानता मूल रूप में समानीकरण की एक प्रक्रिया हैं। इसलिए प्रथमत: समानता का आशय विशेषअधिकारों के अभाव से हैं। द्वितीय रूप में इसका आशय यह है कि सभी व्यक्तियों को विकास के लिए पर्याप्त अवसर प्राप्त होने चाहिए।" ("Equality implies fundamentally a certain levelling process equality, therefore means, first of all, absence of special privilege. equality means in the second place, that adequate opportunities are aid open to all.")
असमानता या विषमता को दूर करने समानता को स्थापित करने के लिए एवं व्यक्तियों के व्यक्तित्व को विकास करने के लिए निम्नलिखित चार प्रकार की समानताओं की आवश्यकता हैं –
1. सामाजिक समानता (Social Dimension Of Equality)—
समानता का सिद्धांत सबसे पहले समाजिक असमानताओं के विरुद्ध विद्रोह के रूप में सामने आया था। जिन देशों में जाति-प्रथा, गुलामी की प्रथा प्रचलित थी, वहांँ समाज के दलित वर्गो तथा विचारशील लोगों ने इन कुरीतियों के विरुद्ध आवाज बुलंद की थी। जैसे भारत में कबीर, दादू और नानक ने इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए काम किया। उन्होंने कहा कि "मनुष्य-मनुष्य में भेद करना पाप हैं।" आज भी कई देशों में गोरे-काले या अमीर-गरीब के बीच भेद-भाव विद्यमान हैं। जैसे इंग्लैंड में केवल गोरे ही रहेंगे। अफ्रीका में केवल काले ही रहेंगे। कभी-कभी इस गोरे, काले के सवाल पर दंगे-फसाद भी हो जाते हैं। जो मानव-सभ्यता के लिए अच्छी चीज नहीं हैं। मानव-सभ्यता का तकाजा तो होना चाहिए कि नागरिकों के साथ केवल धर्म, वंश, जाति, लिंग व जन्म-स्थान के आधार पर किसी प्रकार का पक्षपात व भेद-भाव नहीं होना चाहिए। भारत में भी छुआछूत जैसी बीमारी आज भी विद्यमान हैं। जिसको समाप्त करना चाहिए।
अतः सामाजिक समानता के लिए जाति, वंश, धर्म, लिंग, जन्म-स्थान, काले, गोरे, अमीर, गरीब, स्त्री-पुरुष आदि के आधार पर भेद-भाव व पक्षपात जैसी कुव्यस्था को अंत करना होगा। ताकि सभी नागरिक समाज में सम्मान के भाव से जिंदगी को जी सकें। सामाजिक समानता में विशेष अवसर व सुविधाएंँ किसी वर्ग-विशेष के सभी सदस्यों को उपलब्ध हो, किसी व्यक्ति विशेष को नहीं। बार्कर ने कहा है कि सामाजिक असमानताओं को उधार शिक्षा के माध्यम से दूर किया जा सकता हैं, किंतु सामाजिक दृष्टि से पिछड़े लोगों को उन्नत बनाने के लिए उनके आर्थिक विकास पर बल देना भी बहुत आवश्यक हैं।
2. आर्थिक समानता (Economic Dimension Of Equality) —
आर्थिक समानता का यह अर्थ नहीं है कि सभी व्यक्ति बराबर-बराबर भौतिक पदार्थों का उपभोग करेंगे या सभी को समान वेतन मिलेगा। आर्थिक समानता का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए एवं संपत्ति की दृष्टि से समाज में भारी असमानताएंँ नहीं हो। अर्थात् राष्ट्र की संपत्ति तथा उत्पादन के साधन कुछ ऐसे लोगों के हाथों में केंद्रित नहीं हो। जो केवल व्यक्तिगत स्वार्थ तथा लाभ को ध्यान में रखकर कार्य करें। आर्थिक व्यवस्था को सामाजिक दृष्टि से संतुलित होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो अशांति और क्रांति व उत्थल-पुथल की स्थिति बने रहने की सम्भावना बनी रहती हैं। क्योंकि विषमता के गर्भ से क्रांति पैदा होती है और क्रांति से अशांति पैदा होती हैं। अशांति व अराजकता की स्थिति में किसी भी राष्ट्र का विकास रुक जाता हैं। जो राष्ट्रहित में नहीं होता हैं।
3. राजनीतिक समानता (Political Dimension Of Equality) —
राजनीतिक समानता का तत्पर्य है कि राजनीतिक सभी प्रक्रियाओं में सभी नागरिकों को समान रूप से अधिकार प्राप्त हो। नागरिकों को यह भी अधिकार हो कि व राजनीतिक प्रक्रियाओं को समान रूप से प्रभावित कर सकें। राजतंत्र, कुलीनतंत्र व तानाशाही व्यवस्थाओं में एक साधारण व्यक्ति को उक्त अधिकार प्राप्त नहीं थे। एक साधारण व्यक्ति 'शासक वर्ग' से बिल्कुल अलग रहता था। लेकिन अब लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में ये सब अधिकार प्राप्त हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की दुनिया में एक साधारण नागरिक को भी संवैधानिक व कानूनी रूप से राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने का और उसे प्रभावित करने का अधिकार प्राप्त हैं। अर्थात् उक्त व्यवस्थाओं में राजनीति समानताएंँ प्राप्त हैं। वहीं दूसरी ओर सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से समानता प्राप्त नहीं हो सकी हैं।
4. कानूनी समानता (Legal Dimension Of Equality)—
कानूनी समानता का आमतौर आशय है कि सभी नागरिक कानून के समक्ष समान हैं। कानून नागरिक के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं करता और न ही मनमाना व्यवहार ही करता हैं। कानूनी समानता की व्याख्या हर देश अपने-अपने ढंग से की हैं। लोकतांत्रिक भारत भी कानूनी समानता की व्याख्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 में की हैं। इसमें कहा गया है कि भारत राज्य-क्षेत्र में राज्य किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या कानून द्वारा समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। इसी परिप्रेक्ष्य में डायसी ने कहा है कि "हमारे देश में प्रत्येक प्राधिकारी, चाहे वह प्रधानमंत्री हो या पुलिस का सिपाही या कर वसूल करने वाला, अवैध कार्यों के लिए उतना ही दोषी माना जायेगा जितना अन्य कोई साधारण नागरिक।" ("With us every official from the prime minister down to a constable or collector of taxes is under the same responsibility for every act done without any legal justification as any other citizen.") इसी तरह का एक फैसला भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल बनाम अनवरी अली मुकदमे में देते हुए कहा था कि समान परिस्थितियों में सभी के साथ कानून का व्यवहार एक-सा होना चाहिए। अर्थात् किसी व्यक्ति या शासक का शासन नहीं होगा। कानून का शासन (Rule of law) होगा। किसी शासक को तानाशाह होने से रोकने के लिए ही 'कानून का शासन' की व्यवस्था की गई हैं। ब्रिटिश शासन-व्यवस्था के संदर्भ में अगर देखा जाय तो पाते हैं कि वहांँ लिखित संविधान नहीं हैं। वहांँ 'कानून का शासन' अर्थात् अभिसमय के आधार शासन-व्यवस्था संचालित होती रही हैं।
इसमें दो महत्वपूर्ण चींज हैं –
(i) कानून के समक्ष समानता और,
(ii)कानून का समान संरक्षण ।
पहला के अनुसार सभी नागरिक कानून के समक्ष बराबर हैं। इसमें किसी भी व्यक्ति के साथ किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव व मनमाना व्यवहार नहीं होता।
दूसरे के अनुसार नागरिक अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए प्रत्येक व्यक्ति समान रूप से न्यायालय की शरण ले सकता हैं। इसी संदर्भ में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश श्री दीक्षित ने कहा था कि कानूनी प्रयोग में किसी प्रकार का स्वेच्छाचारी भेदभाव नहीं होना चाहिए और यही कानून द्वारा समान संरक्षण हैं। यह कानून के समक्ष समानता का सकारात्मक पहलू हैं।
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